मै गाँव से हूँ “

कुहरे की सुबह,
दोपहर की भीनी धुप,
मंद बहती हवा और
दिसंबर की ठंडी शाम से हूँ।
घास पर ओस की बुँदे,
हरे-भरे गेहूं के खेत,
कच्ची सड़क, मिटटी की खुसबू,
और आम के पेड़ की छाँव से हूँ ।
आरती से दिन का आरम्भ,
प्रभु के भजनों से संध्या,
लाउड स्पीकर में गूंजते,
कृष्ण और राम के नाम से हूँ।
चिडियों की चहक,
फूलों की महक,
साफ नीला आसमान,
और चमकते तारों की रात से हूँ।
मुझे गर्व है ” मै गाँव से हूँ “।
इश्क

बस यही काम, अब
सुबह, शाम करूंगा
मै इश्क़ तुझसे
तमाम करूंगा,
मशरूफ हो जाऊंगा
तुझमें इस कदर, की
तेरी पलकों में दिन, और
जुल्फो में शाम करूंगा।
मुमकिन नहीं के फिजा में मै ना रहूँ
तू सांस ले और हवा में मै न रहूँ,
सुरत मेरी तू भूल जाये भले ही
गर इश्क मेरा भूले,
तो कसम खुदा की
इस दुनिया में मै ना रहूँ |

गर तेरे दिल मे नही
तो तेरे संग होना चाहता हूँ,
मै तेरी मंज़िल ना सही
पर हमसफर होना चाहता हूँ।
ना खुदा तेरा
ना पीर होना चाहता हूँ,
तू बन नसीब मेरा
मैं तेरा फकीर होना चाहता हूँ।

मैखाना और जाम
अजी इनसे अपना क्या काम,
चेहरा, लब और रुखसार
ये सब भी फानी है ,
गर हो सच की जुस्तजू में
तो झांको कभी रूह में,
तुम कर न बैठी प्यार
तो बस बेकार मेरी जवानी है |

वो मै कह रहा था, कि क्या हम पहले मिले है?
बात ये नई शुरू हुई है, या कुछ, पुराने सिलसिले है?
आंखे तुम्हारी कुछ जानी, पहचानी, लगती हैं
और बाते, पहले सुनी एक कहानी सी लगती हैं।
कभी कभी ऐसा लगता है, ये सब पहले भी हुआ है
कभी, जो जली थी, ये उसी आग का धुआं है।
वरना, ऐसे, अचानक , मुलाकात क्यों होती ?
दिन नहीं होना होता, तो फिर रात क्यों होती?

तू ,चिंगारी
मै आग हूँ,
तू दरख़्त,
मै शाख हूँ ,
तू जुस्तजू
मै फिराक हूँ,
तू बदन
मै लिबास हूँ,
तू पानी
मै प्यास हूँ,
तू हवा
मै सांस हूँ,
तू है तो,
मै जिंदा हूँ,
जो, तू नहीं,
तो मै राख हूँ |

तेरी आँखों की
कुछ तो बात होती है
मेरी आँखों से,
जिससे मै भी
बेखबर हूँ, और
तू भी अनजान है,
गर तू अजनबी है,
और कुछ भी नहीं है
तेर मेरे दरमियाँ,
फिर ऐसा क्यों लगता है,
जैसे तुझसे कोई,
बहुत पुरानी पहचान है

हया कहूँ की अदा लिखूं
इश्क है तू , या वफ़ा लिखूं
शायर की शायरी समझूँ
या कवी की कविता लिखूं
मिलन की आस है कोई
या किस्मतें अपनी जुदा लिखूं |

भूलकर खुद को, गर मुलाकात की होती
हर दफा न सही, बस एक बार की होती
तो यादों का एक अनोखा कारवां होता
और मुकम्मल, एक हसीं दास्ताँ होती,
जो देखा होता, मेरी आँखों में गौर से तूने
तो बयां, इन्तेहाँ , मेरे इंतज़ार की होती,
न रखता आस तुझसे मुहाबत की मै
और न शिकायत तेरे इनकार से होती
गर समझा होता दोस्त ही तूने मुझे
तो ये आँखे न सही, बातें तो चार होती |
झुकाती है जो पलके, तू देखकर मुझे
ये शर्म है, या कोई अदा है तेरी ,
यूँ बार-बार देखना मेरा, पसंद है तुझको
या फिर कोई गुस्ताख, खता है मेरी,
सोचता हु कई दिन से,
की तुझसे बात कर लूँ
रूबरू हो पहली,
मुनासिब मुलाकात कर लूँ
कुछ तेरी सुनु, और
कुछ अपनी बयां कर लूँ
जो तू इजाजत दे अपनी
तो आँखे तुझसे, मै चार कर लूँ,
और फिर भूल जाऊं खुद को
के इस कदर तुझसे प्यार कर लूं ।
जुदाई

चलि गयी वो
यूं हाथ छुड़ा कर,
मासूम तरसती
आंखों को रुलाकर,
जिये जो थे साथ
वो दिन वो रात,
वो बात और जज्बात
सब एक साथ भुलाकर,
न रोने का वादा दिलाया
फिर मिलने का बहाना बनाकर,
और बढ़ी दवे से पाओं से
मेज़ से अपनी तस्वीर उठाकर,
समय से सोना
समय से खाना,
और अपना ध्यान रखना,
समझदारी के सब पाठ पढ़ाकर
चलि गयी वो
यूं हाथ छुड़ा कर
मासूम तरसती
आंखों को रुलाकर।

सूखे पड़े है समंदर इश्क के
बंजर ये दिल की ज़मीन हो गयी है,
हाल बुरा है, आँखों का रो रो कर ,
पलकें भी ये ग़मगीन हो गयी है
ढूंढते है कदम भी मेरे,
निशाँ क़दमों के तेरे
अब कैसे समझाऊ इन्हें,
के साथ हम चले थे जिन रास्तो पर
पत्थर, अब वो जमीन हो गयी है,
तेरा जो कुछ सामान था मेरे पास
वो जला दिया एक दिन, गुस्से में मैंने,
मन मेरा लगा था तेरे बिना जिससे
अब वो तस्वीर भी तेरी कही खो गयी है|
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